Wednesday, March 21, 2012

माहो-अख्तर के बिना आसमां हूँ मैं

माहो-अख्तर के बिना आसमां  हूँ मैं ,
.यादों की बिखरी हुई कहकशां हूँ मैं |

अपने खूं से लिखी हुई दास्ताँ हूँ मैं |
पढने वालों के लिए  इम्तहाँ हूँ मैं |
.
चाहे जिसको लूटना ये ज़हाँ सारा ,
उस दौलत -ऐ-हुस्न का पासबाँ हूँ मैं |
.
छिप सकता है दर्द तेरा ,भला कैसे
तुम्हारे हर राज़ का राज़दां हूँ मैं |
.
या एजद! जाऊं कहीं और मैं कैसे ,
जब तेरे दर का संगे- आस्तां हूँ मैं|
.
कोई भी आकर बसे तो ख़ुशी होगी,
बहुत  वक्त से एक सूना मकां हूँ मैं |
.
माना  लिखता हूँ सुख़न मैं बहुत अच्छा  ,
फिर भी ग़ालिब -सा सुख़नवर कहाँ हूँ मैं |

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने!

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  2. बेहद खूबसूरत एहसास...खाली मकान सा दिल और किसी के बसने की ख़्वाहिश...
    बेहद उम्दा शेर ...

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  3. सुन्दरभाव से लिखी
    बेहतरीन रचना:-)

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  4. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा प्रस्तुती!

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