Monday, April 23, 2012

चौराहे पे हुई इबादत को कम ना आंकिये

झूठ के दौर में भी सदाकत को कम ना आंकिये ।
वतन के लिए हुई शहादत को कम ना आंकिये ।।

झुका देती है अक्सर ही  वो रियासतों  को ,
मजबूर आदमी की बगावत को कम ना आंकिये ।।

बुझ  गए  है  जो  जद्दोज़हद में  आँधियों  से ,
उन चिरागों की शहादत को कम न आंकिये ।।

गिरा देती है अक्सर बड़े-बड़े हाथियों को भी ,
अदानी-सी चींटी की ताकत को कम ना आंकिये ।।

शमा  को  फर्क  पड़े  या  न पड़े कोई बात नहीं ,
परवाने की जल मरने की आदत को कम न आंकिये  ।।

बड़े -बड़े ढेर भी अक्सर राख हो जाते है पलों में  ,
बुझती चिंगारी की  घास से अदावत को  कम ना  आंकिये ।।

ज़रूरी नहीं कि मंदिर जाऊं मैं खुदा के लिए  ,
चौराहे पे हुई इबादत को  कम ना आंकिये ।।

रुसवा करने को काफी होता है एक इशारा ही ,
"नजील" बज़्म में आँखों की शरारत को कम ना आंकिये 
 

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर कल्पना

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  2. वाह ...बहुत ही बढिया।

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. ज़रूरी नहीं कि मंदिर जाऊं मैं खुदा के लिए ,
    चौराहे पे हुई इबादत को कम ना आंकिये ।।
    वाह वाह वाह बहुत खूब :)
    अर्ज किया है ........
    मस्जिद में न गए तो शिकवा न कीजिये |
    मस्ती से झुमने को भी इबादत ही समझिए |

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