Wednesday, December 28, 2011

शायद पड़ गई है दरार दोस्तों के दिलों में ||

छा गई है अब ख़ामोशी -सी हमारी महफिलों में |
शायद  पड़  गई है दरार दोस्तों के दिलों में ||
 
लोग तो डूबा करते हैं अक्सर सागर के बीच ,
मगर हम तो डूब   गए हैं सागर के  साहिलों में |
 
किस से शिकवा करें कि वो काम न आये बुरे वक्त में ,
छोड़ गया साथ खुदा भी हमारा मुश्किलों  में |
 
दोस्त तो बहुत से है हमारे भी इस जहां में मगर ,
फिर भी तन्हा से रहते हैं दोस्तों के काफिलों में |
 
कोई गिला नहीं कि अदावत है जमाने को हमसे  ,
जब अपने ही हुए  है हमारे कातिलों में |
 
आवारा हो गए हैं हम भी इस आशिकी में पड़ कर ,
वरना  "नज़ील" हम भी गिने जाते थे काबिलों में ||


 

Thursday, December 22, 2011

ख़त खूं से लिखा होना |

अच्छा लगता है किसी का यूँ खफा होना |
जब रूठना फितरत नहीं, पर उनकी अदा होना ||
 
मुहब्बत होती है इक हसीं ज़ज्बा दो दिलों का ,
ज़रूरी नहीं इसके लिए ख़त खूं से लिखा होना |
 
करके वायदा उनसे खुद ही मुकर गए हम ,
तो जायज़ ही था उनका हमसे खफा होना |
 
यही अदा है उनकी मुहब्बत के इज़हार की ,
लबों पे तब्बसुम और  नज़रों का झुका होना |
 
अगर हैसियत ही नहीं कुछ पाने की हमारी ,तो ,
कहाँ की अक्लमंदी है हर हसीं शै पे फ़िदा होना |
 
"नज़ील" जिंदगी से भी अज़ीज़ है वो हमको ,
होगी हमारी रुसवाई उनका रुसवा होना ||

Tuesday, December 13, 2011

या खुदा! बस उनको अदा बख्श दे|

बेवफाओं के  शहर को  वफा  बख्श दे|
तू वहां भी मुहब्बत की फिजा बख्श दे|
रहम आ जाए देख के मासूमियत को,
वो इसी बायस ही मेरी कहता बख्श दे |
शक्ल -सूरत से तो भले है ही वो मगर ,
या खुदा! बस  उनको  अदा बख्श  दे|
जल रहें है हम इसी मंशा में ,शायद हमें ,
इस फिजा में कोई ठंडी हवा बख्श दे |
हर तरफ से आये हैं गरम हवा के झोंके ,
हो इनायत वो ज़ुल्फ़ की घटा बख्श दे |
अफ़साने लिख देगा "नजील"मुहब्बत के,
गर उसे लिखने का हुनर  खुदा बख्श दे |

Friday, December 9, 2011

अब मांगे हैं वो दिल का आइना शक्ल के लिए |

खूने-जिगर दिया  हमने कंदीले-महल के लिए,
अब मांगे हैं वो दिल का आइना शक्ल के लिए |
हसरत-ए - वस्ल  दिल में तो शायद कभी हमे,
कोई वक़्त मिल  जाएगा एजद-वस्ल के लिए|

मेरा कातिल कहाँ है ? कोई तो बताओ मुझे ,
मै हाज़िर हो गया उनके हाथों क़त्ल के लिए|
कुछ पाने के लिए खोना भी पड़ता है कुछ,
छोड़ दिया खुल्द आदम-हव्वा ने अज़ल के लिए |

दो अलफ़ाज़ लिखना भी मुश्किल हुआ है बज़्म में,
तन्हाई चाहिए मुझको मेरी ग़ज़ल के लिए|

Sunday, December 4, 2011

आज मुस्कुराए हैं तेरे लिए

चले जाने को मन करता था इस जहां से ,पर लौट आये हैं तेरे लिए,
मुद्दत हुई  है हंसी को खोये हुए, बस आज मुस्कुराए हैं तेरे लिए. 

जद्दोजहद में गुजरे है दिन और तेरे ख्यालों में रात गुजर जाए,
इन आँखों में हमने  बहुत हसीं ख़्वाब सजाए हैं तेरे लिए ,

बहुत मुश्किल होता है बैठना यारों की महफ़िल में अब तो ,
जो बातों- बातों में  हर पल हमको सताए  हैं तेरे  लिए .

जुर्रत कहा थी किसी की जो बात करे आँख मिला के हमसे ,
आज उनके सामने भी खड़े हैं हम, सर झुकाए तेरे लिए ,

डरे है अब दिल  कहीं  इनकार न कर दे  हमारी मुहब्बत को ,
अब तो बड़ी मुश्किल से हमने वालिदेन मनाए है तेरे लिए 

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